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सुरत-शब्द योग द्वारा इसलोक और परलोक में स्थायी शांति दिलाने वाली पुस्तक 'महर्षि मेँहीँ चैतन्य चिंतन' का सिंहावलोकन
प्रभु प्रेमियों ! 'महर्षि मेँहीँ चैतन्य चिंतन' पुस्तक में 'चैतन्य चिंतन' का अर्थ उस सर्वोच्च सत्ता या ब्रह्म का ध्यान और अनुभव है, जो सभी सीमाओं से परे है। चैतन्य चिंतन का मुख्य उद्देश्य आत्मा को भौतिक जगत के बंधनों से मुक्त कर, उस परम चैतन्य सत्ता (ईश्वर) में विलीन करना है। यह परम सत्ता अद्वितीय, अनादि, अनंत, और देश-काल की सीमाओं से परे है। यह नाम और रूप से भी परे है, यानी इसका कोई निश्चित नाम या भौतिक रूप नहीं है, जिसे इंद्रियों से अनुभव किया जा सके। इस चैतन्य सत्ता का 'चिंतन' (ध्यान/मनन) केवल बाहरी साधनों से संभव नहीं है। गुरु महाराज जी ने अंतर्ध्यान (आंतरिक ध्यान) की विधि पर जोर दिया, जिसमें साधक अपने मन और इंद्रियों को बाहरी जगत से समेटकर अपने भीतर एकाग्र करता है। शब्द और नाद की आंतरिक साधना में, साधक कथित तौर पर आंतरिक प्रकाश (ज्योति) और आंतरिक ध्वनि (नाद) का अनुभव करता है। इन अनुभवों के माध्यम से, आत्मा धीरे-धीरे स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ती है और अंततः उस निराकार, चैतन्य परम सत्ता तक पहुँचती है। इस पुस्तक में उपरोक्त बातों की महत्वपूर्ण जानकारी है। ( और जाने ं )
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